पुण्यतिथि विशेष : वीर विनायक दामोदर सावरकर
जीवन वृत्त
प्रारंभिक जीवन
विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (उस समय, 'बॉम्बे प्रेसिडेन्सी') में नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी। सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी०ए० किया। इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलूनकर थी।
लन्दन प्रवास
1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1904 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए , जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे।10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून, 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वार ऑफ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली।इस पुस्तक को सावरकार जी ने पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स के नाम से भारत पहुचाई थी।
इण्डिया हाउस की गतिविधियां
सावरकर ने लंदन के ग्रेज इन्न लॉ कॉलेज में प्रवेश लेने के बाद इंडिया हाउस में रहना शुरू कर दिया था। इंडिया हाउस उस समय राजनितिक गतिविधियों का केंद्र था जिसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी चला रहे थे। सावरकर ने 'फ्री इण्डिया सोसायटी' का निर्माण किया जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। सावरकर ने 1857 की क्रांति पर आधारित पुस्तकें पढ़ी और "द हिस्ट्री ऑफ द वार ऑफ इंडियन इन्डिपेन्डेन्स" (The History of the War of Indian Independence) नामक किताब लिखी। उन्होंने 1857 की क्रांति के बारे में गहन अध्ययन किया कि किस तरह अंग्रेजों को जड़ से उखाड़ा जा सकता है।
लन्दन और मार्सिले में गिरफ्तारी
लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाउस की देखरेख करते थे। 1 जुलाई 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था। 13 मई 1910 को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया परन्तु 8 जुलाई 1910 को एस०एस० मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले। 24 दिसम्बर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार -
मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की।
आर्बिट्रेशन कोर्ट केस
परीक्षण और दण्ड
सावरकर ने अपने मित्रो को बम बनाना और गुरिल्ला पद्धति से युद्ध करने की कला सिखाई। 1909 में सावरकर के मित्र और अनुयायी मदनलाल ढींगरा ने एक सार्वजनिक बैठक में अंग्रेज अफसर कर्जन की हत्या कर दी। ढींगरा के इस काम से भारत और ब्रिटेन में क्रांतिकारी गतिविधिया बढ़ गयी। सावरकर ने ढींगरा को राजनीतिक और कानूनी सहयोग दिया, लेकिन बाद में अंग्रेज सरकार ने एक गुप्त और प्रतिबंधित परीक्षण कर ढींगरा को मौत की सजा सुना दी, जिससे लन्दन में रहने वाले भारतीय छात्र भड़क गये। सावरकर ने ढींगरा को एक देशभक्त बताकर क्रांतिकारी विद्रोह को ओर उग्र कर दिया था। सावरकर की गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने हत्या की योजना में शामिल होने और पिस्तौले भारत भेजने के जुर्म में फंसा दिया, जिसके बाद सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया। अब सावरकर को आगे के अभियोग के लिए भारत ले जाने का विचार किया गया। जब सावरकर को भारत जाने की खबर पता चली तो सावरकर ने अपने मित्र को जहाज से फ्रांस के रुकते वक्त भाग जाने की योजना पत्र में लिखी। जहाज रुका और सावरकर खिड़की से निकलकर समुद्र के पानी में तैरते हुए भाग गए, लेकिन मित्र को आने में देर होने की वजह से उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। सावरकर की गिरफ्तारी से फ्रेंच सरकार ने ब्रिटिश सरकार का विरोध किया।
सेलुलर जेल में
नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अन्तर्गत इन्हें 7 अप्रैल,1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया। उनके अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था। साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था। सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे।
दया याचिका
1920 में वल्लभ भाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक के कहने पर ब्रिटिश कानून ना तोड़ने और विद्रोह ना करने की शर्त पर उनकी रिहाई हो गई। सावरकर जी जानते थे कि सालों जेल में रहने से बेहतर भूमिगत रह करके उन्हें काम करने का जितना मौका मिले, उतना अच्छा है। उनकी सोच ये थी कि अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे जोकि अंडमान निकोबार की जेल से संभव नहीं था। कई लोगों द्वारा शुरू से ही उन्हें भारत रत्न की मांग की जा रही है।
स्वतन्त्रता संग्राम
रत्नागिरी में प्रतिबंधित स्वतंत्रता
1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी। जेल में उन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा। इस बीच 7 जनवरी 1924 को इनकी पुत्री, प्रभात का जन्म हुआ। मार्च, 1925 में उनकी भॆंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ॰ हेडगेवार से हुई। 17 मार्च 1927 को इनके बेटे विश्वास का जन्म हुआ। फरवरी, 1931 में इनके प्रयासों से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था। 25 फ़रवरी 1931 को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की.
1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19 वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये। 15 अप्रैल 1937 को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। 13 दिसम्बर 1937 को नागपुर की एक जन-सभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी थी। 22 जून 1941 को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। 9 अक्टूबर 1942 को भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया। सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था। 1943 के बाद दादर, बम्बई में रहे। 16 मार्च 1945 को इनके भ्राता बाबूराव का देहान्त हुआ। 19 अप्रैल 1925 को उन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी वर्ष 8 मई को उनकी पुत्री प्रभात का विवाह सम्पन्न हुआ। अप्रैल 1946 में बम्बई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से प्रतिबन्ध हटा लिया। 1947 में इन्होने भारत विभाजन का विरोध किया। महात्मा रामचन्द्र वीर नामक (हिन्दू महासभा के नेता एवं सन्त) ने उनका समर्थन किया।
विचार
हिन्दू राष्ट्रवाद
सावरकर 20वीं शताब्दी के सबसे बड़े हिन्दूवादी रहे। विनायक दामोदर सावरकर को बचपन से ही हिन्दू शब्द से बेहद लगाव था। सावरकर ने जीवन भर हिन्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तान के लिए ही काम किया। सावरकर को 6 बार अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। 1937 में उन्हें हिंदू महासभा का अध्यक्ष चुना गया, जिसके बाद 1938 में हिंदू महासभा को राजनीतिक दल घोषित कर दिया गया।
हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है। उनकी इस विचारधारा के कारण आजादी के बाद की सरकारों ने उन्हें वह महत्त्व नहीं दिया जिसके वे वास्तविक हकदार थे।
महात्मा गाँधी की हत्या में गिरफ्तार और निर्दोष सिद्ध
गांधीजी के हत्या में सावरकर के सहयोगी होने का आरोप लगा जो सिद्ध नहीं हो सका। एक सच्चाई यह भी है कि महात्मा गांधी और सावरकर-बंधुओं का परिचय बहुत पुराना था। सावरकर-बंधुओं के व्यक्तित्व के कई पहलुओं से प्रभावित होने वालों और उन्हें ‘वीर’ कहने और मानने वालों में गांधी भी थे।
पुस्तक एवं फिल्म
- जालस्थल
इनके जन्म की 125 वीं वर्षगांठ पर इनके ऊपर एक अलाभ जालस्थल आरंभ किया गया है। इसका संपर्क अधोलिखित काड़ियों मॆं दिया गया है। इसमें इनके जीवन के बारे में विस्तृत ब्यौरा, डाउनलोड हेतु ऑडियो व वीडियो उपलब्ध हैं। यहां उनके द्वारा रचित 1924 का दुर्लभ पाठ्य भी उपलब्ध है। यह जालस्थल 28 मई,2007 को आरंभ हुआ था।
- चलचित्र
- 1958 में एक हिन्दी फिल्म काला पानी (1958 फ़िल्म) बनी थी। जिसमें मुख्य भूमिकाएं देव आनन्द और मधुबाला ने की थीं। इसका निर्देशन राज खोसला ने किया था। इस फिल्म को 1959 में दो फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिले थे। इंटरनेट मूवी डाटाबेस पर काला पानी
- 1996 में मलयालम में प्रसिद्ध मलयाली फिल्म-निर्माता प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित फिल्म काला पानी बनी थी। इस फिल्म में हिन्दी फिल्म अभिनेता अन्नू कपूर ने सावरकर का अभिनय किया था। इंटरनेट मूवी डाटाबेस पर सज़ा-ए-काला पानी
- 2001 में वेद राही और सुधीर फड़के ने एक बायोपिक चलचित्र बनाया- वीर सावरकर। यह निर्माण के कई वर्षों के बाद रिलीज़ हुई। सावरकर का चरित्र इसमें शैलेन्द्र गौड़ ने किया है।
- इनके नाम पर ही पोर्ट ब्लेयर के विमानक्षेत्र का नाम वीर सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया है।
सामाजिक उत्थान
सावरकर एक महान समाज सुधारक भी थे। उनका दृढ़ विश्वास था, कि सामाजिक एवं सार्वजनिक सुधार बराबरी का महत्त्व रखते हैं व एक दूसरे के पूरक हैं। उनके समय में समाज बहुत सी कुरीतियों और बेड़ियों के बंधनों में जकड़ा हुआ था। इस कारण हिन्दू समाज बहुत ही दुर्बल हो गया था। अपने भाषणों, लेखों व कृत्यों से इन्होंने समाज सुधार के निरंतर प्रयास किए। हालांकि यह भी सत्य है, कि सावरकर ने सामाजिक कार्यों में तब ध्यान लगाया, जब उन्हें राजनीतिक कलापों से निषेध कर दिया गया था। किन्तु उनका समाज सुधार जीवन पर्यन्त चला। उनके सामाजिक उत्थान कार्यक्रम ना केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि राष्ट्र को समर्पित होते थे। 1924 से 1937 का समय इनके जीवन का समाज सुधार को समर्पित काल रहा।
सावरकर के अनुसार हिन्दू समाज सात बेड़ियों में जकड़ा हुआ था।
- स्पर्शबंदी: निम्न जातियों का स्पर्श तक निषेध, अस्पृश्यता
- रोटीबंदी: निम्न जातियों के साथ खानपान निषेध
- बेटीबंदी: खास जातियों के संग विवाह संबंध निषेध
- व्यवसायबंदी: कुछ निश्चित व्यवसाय निषेध
- सिंधुबंदी: सागरपार यात्रा, व्यवसाय निषेध
- वेदोक्तबंदी: वेद के कर्मकाण्डों का एक वर्ग को निषेध
- शुद्धिबंदी: किसी को वापस हिन्दूकरण पर निषेध
राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का समर्थन
हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए सावरकर सन् 1906 से ही प्रयत्नशील थे। लन्दन स्थित भारत भवन (इंडिया हाउस) में संस्था 'अभिनव भारत' के कार्यकर्ता रात्रि को सोने के पहले स्वतंत्रता के चार सूत्रीय संकल्पों को दोहराते थे। उसमें चौथा सूत्र होता था ‘हिन्दी को राष्ट्रभाषा व देवनागरी को राष्ट्रलिपि घोषित करना'।
अंडमान की सेल्यूलर जेल में रहते हुए उन्होंने बन्दियों को शिक्षित करने का काम तो किया ही, साथ ही साथ वहां हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु काफी प्रयास किया। 1911 में कारावास में राजबंदियों को कुछ रियायतें देना शुरू हुई, तो सावरकर जी ने उसका लाभ राजबन्दियों को राष्ट्रभाषा पढ़ाने में लिया। वे सभी राजबंदियों को हिंदी का शिक्षण लेने के लिए आग्रह करने लगे। हालांकि दक्षिण भारत के बंदियों ने इसका विरोध किया क्योंकि वे उर्दू और हिंदी को एक ही समझते थे। इसी तरह बंगाली और मराठी भाषी भी हिंदी के बारे में ज्यादा जानकारी न होने के कारण कहते थे कि इसमें व्याकरण और साहित्य नहीं के बराबर है। तब सावरकर ने इन सभी आक्षेपों के जवाब देते हुए हिन्दी साहित्य, व्याकरण, प्रौढ़ता, भविष्य और क्षमता को निर्देशित करते हुए हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा के सर्वथा योग्य सिद्ध कर दिया। उन्होंने हिन्दी की कई पुस्तकें जेल में मंगवा ली और राजबंदियों की कक्षाएं शुरू कर दीं। उनका यह भी आग्रह था कि हिन्दी के साथ बांग्ला, मराठी और गुरुमुखी भी सीखी जाए। इस प्रयास के चलते अण्डमान की भयावह कारावास में ज्ञान का दीप जला और वहां हिंदी पुस्तकों का ग्रंथालय बन गया। कारावास में तब भाषा सीखने की होड़-सी लग गई थी। कुछ माह बाद राजबंदियों का पत्र-व्यवहार हिन्दी भाषा में ही होने लगा। तब अंग्रेजों को पत्रों की जांच के लिए हिंदीभाषी मुंशी रखना पड़ा।
सावरकर के नाम पर स्थापित संस्थाएँ
सावरकर के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए भारत में अनेक संस्थाएँ कार्यरत हैं, उनमें से कुछ ये हैं-
- नादब्रह्म (चिंचवड-पुणे) : रवींद्र-सावनी-वंदना घांगुर्डे द्वारा संचालित यह संगठन, रंगमंच पर सावरकर के साहित्य पर आधारित कई कार्यक्रम प्रस्तुत करता है।
- वीर सावरकर फाउंडेशन (कलकता)
- वीर सावरकर मित्र मंडळ ()
- वीर सावरकर स्मृती केंद्र (वडोदरा)
- समग्र सावरकर वाङ्मय प्रकाशन समिती
- सावरकर दर्शन प्रतिष्ठान (मुंबई)
- सावरकर रुग्ण सेवा मंडळ (लातूर)
- स्वातंत्र्यवीर सावरकर गणेश मंडळ ()
- स्वातंत्र्यवीर सावरकर मंडळ (निगडी-पुणे जिला)
- स्वातंत्र्यवीर सावरकर साहित्य अभ्यास मंडळ (डोंबिवली-ठाणे जिला)
- स्वातंत्र्यवीर सावरकर साहित्य अभ्यास मंडळ (मुंबई) -- यह संस्था सावरकर साहित्य सम्मेलन का आयोजन करती है।
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