अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी : अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
अमेरिका ने प्रमुख बाह्य शक्ति के रूप में ब्रिटेन को प्रतिस्थापित किया, इसलिये अमेरिका वह धुरी रहा है, जिसके चारों ओर वैश्विक और क्षेत्रीय राजनीति संचालित होती है। इसी के चलते कई क्षेत्रीय शक्तियों ने महत्त्वाकांक्षी या आक्रामक पड़ोसियों से अपनी सुरक्षा के लिये अमेरिका के साथ गठबंधन की मांग की।
मध्य-पूर्वी क्षेत्र में इज़रायल की सुरक्षा, तेल की आपूर्ति सुनिश्चित करना, अन्य शक्तियों के साथ प्रतिस्पर्धा, क्षेत्रीय शांति, लोकतंत्र को बढ़ावा देना और आतंकवाद पर मुहर लगाना ऐसे कारक थे। जिन्होंने इस क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य व उसके राजनीतिक और कूटनीतिक निवेश की मांग की थी।
अब अमेरिका मध्य-पूर्व से भारत-प्रशांत क्षेत्र में अपनी प्राथमिकताओं को स्थानांतरित कर रहा है, इसी के चलते उसने अफगानिस्तान से बाहर निकलने की मांग की है। जैसा कि अंतिम अमेरिकी सैनिकों ने अफगानिस्तान छोड़ना शुरू कर दिया है, जिसका इस संपूर्ण क्षेत्र और उससे आगे प्रभाव पड़ सकता है।
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के हटने के कारण
- अंतिम एवं अंतहीन युद्ध: मध्य-पूर्व में महंगे और लंबे समय तक सैन्य हस्तक्षेप के बाद, अमेरिका ने यह महसूस किया, कि वह इस क्षेत्र में सदियों पुराने संघर्षों का समाधान नहीं कर सकता है।
- मध्य -पूर्व क्षेत्र में अमेरिका के "अंतहीन युद्धों" को समाप्त करने का वादा पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की पूर्व नीति के केंद्रीय विषयों में से एक था।
- नए अमेरिकी राष्ट्रपति इस मोर्चे पर सिर्फ नीतिगत रुख बनाए हुए हैं।
- मध्य पूर्व से हिंद-प्रशांत की ओर प्राथमिकताओं में परिवर्तन: अमेरिका अब चीन को संशोधनवादी शक्ति के रूप में देखता है, जो दुनिया भर में अमेरिका के आधिपत्य को चुनौती देता है।
- इस प्रकार, अमेरिका, चीन से प्राप्त हों रही कठोर चुनौतियों के चलते अपने सैन्य, राजनीतिक और कूटनीतिक संसाधनों को मध्य पूर्व से भारत-प्रशांत में स्थानांतरित करना चाहता है।
मध्य पूर्व क्षेत्र के निहितार्थ
जैसा कि अमेरिका मध्य-पूर्व से वापस कदम पीछे खींच रहा है, पुनः ज़्यादातर क्षेत्रीय शक्तियों को या तो वैकल्पिक संरक्षक की आवश्यकता होगी या अपने पड़ोसियों के साथ तनाव कम करना होगा । इस प्रकार, पड़ोसियों के साथ रहना सीखना अब एक ज़रूरी प्राथमिकता बन सकती है। इस प्रयास में निम्नलिखित घटनाएँ होने की संभावना है :
- तुर्की का सामान्यीकरण : तुर्की महसूस कर सकता है, कि उसकी परेशान अर्थव्यवस्था महत्त्वाकांक्षी क्षेत्रीय नीतियों को बनाए नहीं रख सकती है। इस्लामी दुनिया में वर्षों से चुनौती दे रहे सऊदी नेतृत्त्व देखते हुए तुर्की, सऊदी अरब और मिस्र के साथ अपने संबंधों को सामान्य कर सकता है।
- सऊदी-ईरान संघर्ष का सामान्यीकरण : वर्षों की गहन शत्रुता के बाद, सऊदी अरब और ईरान अब द्विपक्षीय तनाव को कम करने और इस क्षेत्र में अपने प्रॉक्सी युद्धों को कम करने के साधन तलाश सकते हैं।
- सऊदी अरब भी कतर को अलग करने के पहले के प्रयास को समाप्त करके खाड़ी देशों के भीतर पड़ी दरार को ठीक करने की कोशिश कर रहा है।
- अब्राहम समझौते : इसके द्वारा पिछले वर्ष कुछ अरब राज्यों - यूएई, बहरीन, मोरक्को और सूडान द्वारा इजरायल के साथ संबंधों को सामान्य बनाने का प्रयास किया गया है।
भारत के निहितार्थ
- तालिबान की वापसी : अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी से पूरे क्षेत्र में हिंसक धार्मिक उग्रवाद को बढ़ावा मिलेगा और भारत तथा अन्य पड़ोसी देशों को इन्हीं दुष्परिणामों के साथ रहना होगा।
- क्षेत्र में तालिबान और अन्य चरमपंथी ताकतों के बीच सीमा-पार संबंधों की संभावना भी एक चुनौती है।
- अमेरिकी सैनिकों की वापसी से लश्कर-ए-तैयबा या जैश-ए-मोहम्मद जैसे - विभिन्न भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों को शरण देने वाली जमीन तैयार हो सकती है।
- अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को कम आँकना : अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी भारतीय उपमहाद्वीप के लिये बड़ी चुनौती है।
- अमेरिकी सैन्य उपस्थिति ने भारत के लिये चरमपंथी ताकतों पर नियंत्रण रखा था, और अफगानिस्तान भारतीय भूमिका के लिये अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण किया था।
- जैसा कि अफगानिस्तान, मध्य एशिया का प्रवेश द्वार है, अमेरिकी एग्ज़िट, मध्य एशिया में भारत की रुचि को कम कर सकता है।
- भारत-तुर्की संबंधों को सामान्य बनाना: भारत मध्य-पूर्व में अधिकांश क्षेत्रीय शक्तियों के साथ अपने संबंधों का विस्तार करने में सफल रहा है। हालांकि, तुर्की ने एर्दोगन के तहत भारत से दुश्मनी स्थापित कर ली है।
- उम्मीद है कि नए क्षेत्रीय मंथन से तुर्की को भारत के साथ अपने संबंधों पर नए सिरे से विचार करने की प्रेरणा मिलेगी।
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