बैंकिंग सुधारों की नई पीढ़ी : भारतीय अर्थव्यवस्था
भारतीय बैंकिंग क्षेत्र एक निरंतर आधार पर विकसित हो रहा है, जिसमें इसके अनन्य होने से लेकर सामाजिक सुधार और वित्तीय समावेशन का वाहक बनना भी शामिल है। हालाँकि हाल के दिनों में बैंकिंग उद्योग ने कई समस्याओं का अनुभव किया है। उदाहरण के लिये, परिसंपत्ति की गुणवत्ता में गिरावट, वित्तीय सुदृढ़ता और दक्षता में गिरावट ने भारतीय बैंकिंग उद्योग को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।
बढ़ती आबादी जैसी चुनौतियों, कोविड-19 महामारी के संकट और पश्चिमी देशों के भारत एवं अन्य स्थानों पर अपने विनिर्माण आधार को स्थानांतरित करने के इरादों को देखते हुए पाँचवीं पीढ़ी के बैंकिंग सुधारों को स्वीकार करना आवश्यक हो गया है।
भारतीय बैंकिंग उद्योग का विकास :
- पहली पीढ़ी की बैंकिंग : स्वतंत्रता-पूर्व अवधि (1947 तक) के दौरान स्वदेशी आंदोलन ने कई छोटे और स्थानीय बैंकों को जन्म दिया।
- उनमें से अधिकांश आंतरिक धोखाधड़ी, परस्पर संबद्ध उधार और व्यापार एवं बैंकिंग बुक के संयोजन के कारण विफल रहे।
- दूसरी पीढ़ी की बैंकिंग (1947-1967) : भारतीय बैंकों ने कुछ व्यावसायिक परिवारों या समूहों को संसाधनों के केंद्रीकरण (खुदरा जमा के माध्यम से जुटाए जाने) की सुविधा दी और इस तरह कृषि क्षेत्र के लिये ऋण प्रवाह की उपेक्षा की गई।
- तीसरी पीढ़ी की बैंकिंग(1967-1991) : सरकार द्वारा दो प्रमुख चरणों (1969 और 1980) में 20 प्रमुख निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से उद्योगों तथा बैंकों के बीच सांठ-गांठ तोड़ने तथा प्राथमिक क्षेत्र ऋण प्रवाह को लागू करने (1972) में सफल रही।
- इन पहलों के परिणामस्वरूप 'क्लास बैंकिंग' से 'मास बैंकिंग' में बदलाव संभव हुआ।
- इसके अलावा भारत (ग्रामीण) में शाखा नेटवर्क के विस्तार, सार्वजनिक जमा और कृषि एवं संबद्ध क्षेत्रों में ऋण प्रवाह पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा।
- चौथी पीढ़ी की बैंकिंग (1991-2014) : इस अवधि में ऐतिहासिक सुधारों को देखा गया जहाँ प्रतिस्पर्धा व उत्पादकता बढ़ाने के साथ-साथ दक्षता को बढ़ाने के लिये निजी एवं विदेशी बैंकों को नए लाइसेंस जारी किये गए।
- इसकी प्राप्ति प्रौद्योगिकी की सहायता से; विवेकपूर्ण मानदंडों की शुरुआत करके; कार्यात्मक स्वायत्तता के साथ बैंकों के परिचालन में लचीलापन प्रदान करके, कॉर्पोरेट प्रशासन प्रथाओं के कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करके, और बेसल मानदंडों के अनुसार पूंजी आधार को मज़बूत करने जैसे विभिन्न कदमों के माध्यम से की गई थी।
- वर्तमान मॉडल : वर्ष 2014 के बाद से, बैंकिंग क्षेत्र ने JAM (जन-धन, आधार और मोबाइल) को अपनाने और भुगतान बैंकों तथा लघु वित्त बैंकों (SFB) को लाइसेंस जारी करने जैसे कार्यों के माध्यम से वित्तीय समावेशन को बढ़ावा दिया है।
पाँचवीं पीढ़ी की बैंकिंग में आगे की राह :
- बिग बैंक: नरसिम्हम समिति रिपोर्ट (1991) में इस बात पर जोर दिया गया कि भारत में घरेलू व विदेशी बैंकों के साथ-साथ तीन या चार बड़े वाणिज्यिक बैंक भी होने चाहिये।
- दूसरी श्रेणी में कई मध्यम-आकार के ऋणदाता शामिल हो सकते हैं, जिनमें कई ऐसे प्रमुख बैंक भी शामिल हैं, जो अर्थव्यवस्था में व्यापक उपस्थिति दर्शाते हैं।
- इन सिफारिशों के अनुसार, सरकार ने पहले ही सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ बैंकों का विलय कर दिया है, तथा DFI (Development Finance Institution) और बैड बैंक आदि की स्थापना की दिशा में कदम उठाए हैं।
- विभेदित बैंकों की आवश्यकता : यद्यपि सार्वभौमिक बैंकिंग मॉडल को व्यापक रूप से पसंद किया गया है, किंतु विभिन्न ग्राहकों और उधारकर्त्ताओं की विशिष्ट एवं भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये विशिष्ट बैंकिंग की आवश्यकता है।
- ये विशेष बैंक, RAM (Retail, Agriculture, MSMEs) जैसे क्षेत्रों में अनिवार्य वित्त की पहुँच को आसान बनाएँगे।
- इसके अलावा, प्रस्तावित DFI/विशिष्ट बैंक को ऐसे प्रमुख बैंकों के रूप में स्थापित किया जा सकता है, जिनके पास कम लागत वाले सार्वजनिक जमा और बेहतर परिसंपत्ति-देयता प्रबंधन तक पहुँच हो।
- ब्लॉकचेन बैंकिंग : इसमें जोखिम प्रबंधन अधिक विशिष्ट हो सकता है, और यह नवीन-बैंक (डिजिटल), वित्तीय समावेशन तथा आकांक्षी/नए भारत के उच्च विकास के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठा सकते हैं।
- इसके लिये भारतीय बैंकिंग में ब्लॉकचैन जैसी प्रौद्योगिकी को लागू किया जा सकता है।
- ब्लॉकचेन प्रौद्योगिकी विवेकपूर्ण पर्यवेक्षण की अनुमति देगा, जिससे बैंकों पर नियंत्रण रखना आसान हो सकता है।
- नैतिक जोखिम को कम करना: सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की विफलता आज तक एक दुर्लभ घटना रही है, और बैंकों में बेहतर सार्वजनिक विश्वास का मुख्य कारण इनके द्वारा प्रदत्त संप्रभु गारंटी है।
- हालाँकि सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण के साथ यह हमेशा सही नहीं हो सकता है।
- इसलिये पाँचवीं पीढ़ी के बैंकिंग सुधारों को उच्च व्यक्तिगत जमा बीमा और सार्वजनिक खजाने हेतु कम लागत के साथ नैतिक एवं प्रणालीगत जोखिमों को कम करने के लिये प्रभावी क्रमिक समाधान प्रणाली की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- ESG फ्रेमवर्क : विभेदित बैंकों को भी मान्यता प्राप्त स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध होने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है, और दीर्घकाल में अपने हितधारकों हेतु उन्हें ESG (पर्यावरण, सामाजिक ज़िम्मेदारी और शासन) फ्रेमवर्क का भी पालन करना चाहिये।
- बैंकों को सशक्त बनाना : सरकार को विविधतापूर्ण ऋण पोर्टफोलियो का निर्माण करके, क्षेत्र-वार नियामकों की स्थापना करके, विलफुल डिफॉल्टरों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये अधिक-से-अधिक शक्तियाँ प्राप्त करने की अनुमति देकर इस क्षेत्र के लचीलेपन को दूर करना चाहिये।
- एक गतिशील वास्तविक अर्थव्यवस्था में ज़िम्मेदार बैंकिंग प्रणाली स्थापित करने के लिये कॉर्पोरेट बॉण्ड मार्केट (बैंक के नेतृत्त्व वाली अर्थव्यवस्था से बदलाव) का मार्ग प्रशस्त करने की भी आवश्यकता है।
भारत में बैंकिंग बहुत सुविधाजनक और परेशानी मुक्त है। कोई भी (व्यक्ति, समूह या जो भी हो) आसानी से लेनदेन की प्रक्रिया कर सकता हैं जब भी किसी को आवश्यकता हो। बैंकों द्वारा भारत में दी जाने वाली आम सेवाएँ इस प्रकार हैं -
- बैंक खाते : यह बैंकिंग क्षेत्र की सबसे आम सेवा है। कोई भी व्यक्ति बैंक खाता खोल सकता है, जो कि बचतखाता, चालू खाता या जमा खाता कुछ भी हो सकता है।
- ऋण खाते : आप विभिन्न प्रकार के ऋणों के लिए किसी भी बैंक का रुख कर सकते हैं। यह आवास ऋण, कार ऋण, व्यक्तिगत ऋण, शेयर के विरुद्ध ऋण और शैक्षिक ऋण या कोई भी ऋण हो सकता है।
- धन हस्तांतरण : बैंकें विश्व के एक कोने से दूसरे कोने में पैसा स्थानांतरण करने के लिए ड्राफ्ट, धनाआदेश या चेक जारी कर सकते है।
- क्रेडिट और डेबिट कार्ड : सभी बैंकें अपने ग्राहकों को क्रेडिट कार्ड की पेशकश करते हैं। जो कि उत्पादों और सेवाओं को खरीदने के लिये या पैसे उधार लेने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
- लाकर्स : अधिकांश बैंकों के पास लाकर्स सुविधा उपलब्ध होती है जिसमें ग्राहक अपने महत्वपूर्ण दस्तावेज या क़ीमती गहने सुरक्षित रख सकता है।
- अनिवासी भारतीयों के लिए बैंकिंग सेवा
अनिवासी भारतीयों या एनआरआई लगभग सभी भारतीय बैंकों में खाता खोल सकते हैं। अनिवासी भारतीय तीन प्रकार के खाते खोल सकते हैं:
- अनिवासी खाता (साधारण) - NRO
- अनिवासी (बाह्य) रुपया खाते - NRE
- अनिवासी (विदेशी मुद्रा) खाता - FCNR
विभिन्न प्रकार के वाणिज्यिक बैंक
भारत की वाणिज्यिक बैंकिंग इन श्रेणियों में रख सकते हैं-
1. केंन्द्रीय बैंक - रिजर्व बैंक ओफ़ इंडिया, भारत की केंन्द्रीय बैंक है, जो कि भारत सरकार के अधीन है। इसे केन्द्रीय मंडल के द्वारा शासित किया जाता है, जिसे एक गवर्नर नियंत्रित करता है, जिसे केन्द्र सरकार नियुक्त करती है। यह देश के भीतर की सभी बैंकों को संचालन के लिए दिशा निर्देश जारी करती है।
2. सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंक -
- भारतीय स्टेट बैंक और उसके सहयोगी बैंकों को 'स्टेट बैंक समूह' कहा जाता है।
- 20 राष्ट्रीयकृत बैंक
- क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक जो कि मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा प्रायोजित हैं।
3. निजी क्षेत्र के बैंक
- पुरानी पीढ़ी के निजी बैंक
- नई पीढ़ी के निजी बैंक
- भारत में सक्रिय विदेशी बैंक
- अनुसूचित सहकारी बैंक
- गैर अनुसूचित बैंक
4. सहकारी क्षेत्र - सहकारी क्षेत्र की बैंकें ग्रामीण लोगों के लिए बहुत अधिक उपयोगी है। इस सहकारी बैंकिंग क्षेत्र को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित कर सकत हैं -
- 1. राज्य सहकारी बैंक
- 2. केन्द्रीय सहकारी बैंक
- 3. प्राथमिक कृषि ऋण सोसायटी
5. विकास बैंक / वित्तीय संस्थाएँ
- आईएफसीआई
- आईडीबीआई
- आईसीआईसीआई
- IIBI
- SCICI लिमिटेड
- नाबार्ड
- निर्यात आयात बैंक ऑफ इंडिया
- राष्ट्रीय आवास बैंक
- भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक
- पूर्वोत्तर विकास वित्त निगम
निष्कर्ष -
वर्तमान परिदृश्य बैंकिंग क्षेत्र में व्यापक बदलाव हेतु प्रेरित करता है, ताकि इसके लचीलेपन में सुधार हो और वित्तीय स्थिरता बनी रहे। इस संदर्भ में सरकार ने हाल ही में नए बैंकिंग सुधारों की घोषणा की है, जिसमें बुनियादी ढाँचे के लिये एक विकास वित्त संस्थान (DFI) की स्थापना, एक बैड बैंक का निर्माण और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) का निजीकरण आदि शामिल है।
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