भारत में मृत्युदंड की प्रासंगिकता : एक समग्र अवलोकन
संदर्भ
समाज की संरचना और तंत्र को सुचारु रूप से क्रियान्वित करने हेतु संस्थागत विधानों का सृजन किया गया जिसमें समाज के सभी वर्गों के हितों के संरक्षण, समाज की अनवरत प्रगति और संस्थाओं के बेहतर निष्पादन जैसे आयामों को एकीकृत किया गया है। संस्थागत विधानों के पारंपरिक स्वरूप में कालक्रम के साथ ही आधुनिक रूप से विकसित और व्यवस्थित संविधान का निर्माण हुआ जिसमे मानव समाज के हितों और अधिकारों को मूल अधिकारों के नाम से संकलित किया गया। समाज की प्रगति जारी रखने हेतु कई प्रकार के संस्थागत और व्यक्तिगत प्रावधान किये गए हैं जिसके परिणामस्वरूप दोनों के मध्य बेहतर तारतम्यता स्थापित की जा सके। समाज की प्रगति और मूल अधिकारों की तारतम्यता के नवीन परिदृश्य के आलोक में मृत्युदंड का विषय वैधानिक पटल पर उभर कर आया है जिसमें सामाजिक व्यवस्थाओं को बनाए रखने और किसी भी मानव के जीवन के अधिकार के मध्य द्वंद की स्थिति बनी हुई है।
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले की शबनम की दया याचिका की वजह से फांसी की सजा टल गई है।
- अगर फांसी की सजा शबनम को दी जाती है तो आजादी के बाद भारत में यह पहली बार होगा कि किसी महिला अपराधी को फांसी की सजा दी जाएगी।
- शबनम और सलीम को मृत्युदंड देने से, एक बार फिर यह मुद्दा उभरकर सामने आया है कि अपराधों को रोकने हेतु क्या भारत में मृत्युदंड देना प्रासंगिक है अथवा नहीं?
क्या है मृत्युदंड?
- मृत्युदंड को कैपिटल पनिशमेंट या डेथ सेंटेंस के नाम से जाना जाता है । इसमें दंड के रूप में किसी अपराधी के जीवन को समाप्त कर दिया जाता है । यह दंड किसी व्यक्ति को गंभीर अपराध के लिए दिया जाता है। हत्या, हत्या के प्रयास, राज्य के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह इत्यादि जैसे अपराधों में मृत्युदंड का प्रावधान है।
मृत्युदंड और भारत
- मृत्युदंड (Capital Punishment) विश्व में किसी भी तरह के दंड कानून के तहत किसी व्यक्ति को दी जाने वाली उच्चतम सज़ा होती है। हालाँकि भारत में मृत्युदंड की सज़ा का इतिहास काफी लंबा है, किंतु हाल के दिनों में इसे खत्म करने को लेकर भी कई आंदोलन किये गए हैं।
- भारतीय दंड संहिता, 1860 में आपराधिक षड्यंत्र, हत्या, राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने, डकैती जैसे विभिन्न अपराधों के लिये मौत की सज़ा का प्रावधान है। इसके अलावा कई अन्य कानूनों जैसे- गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 में भी मृत्युदंड का प्रावधान किया गया है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद-72 में मृत्युदंड के संबंध में क्षमादान का प्रावधान किया गया है। इस अनुच्छेद के तहत भारत के राष्ट्रपति को कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में मृत्युदंड पर रोक लगाने का अधिकार है।
- इसी प्रकार संविधान का अनुच्छेद-161 राज्य के राज्यपाल को कुछ विशिष्ट मामलों में मृत्युदंड पर रोक लगाने का अधिकार देता है।
- साथ ही यह भी प्रावधान किया गया है कि यदि एक सत्र न्यायालय मृत्युदंड देता है, तो सर्वप्रथम इसकी पुष्टि राज्य विशेष के उच्च न्यायालय द्वारा की जाएगी और उसके पश्चात् ही सज़ा दी जाएगी।
- 2007 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने उन 59 देशों से मौत की सज़ा पर रोक लगाने के लिये आग्रह करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया, जो अभी भी इसे बनाए हुए हैं। ज्ञात हो कि भारत इन्हीं देशों में से एक है।
सरकारी सूत्र बताते हैं कि स्वतंत्रता के बाद से भारत में 52 लोगों को मृत्यु दण्ड दिया गया है। हालांकि, एक भारतीय मानवाधिकार संगठन,पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज का दावा है कि यह संख्याएं बहुत अधिक हैं।उनके शोध के अनुसार दशक 1953-63 में 1422 मृत्यु दण्ड दिए गए हैं। 30 जुलाई 2015 को भारत मेंअंतिम मृत्यु दण्ड याकूब मेमन को दिया गया था। 1993 के मुम्बई बम विस्फोट में उसकी भूमिका के लिए उन्हें दोषी ठहराया गया था।एक अन्य नाम जिसे लोग हमेशा याद रखते हैं वह 2008 के मुंबई हमलों का आतंकवादी अजमल कसाब है।उसे 21 नवंबर, 2012 को मृत्यु दण्ड दिया गया था।
वर्तमान में, दुनिया भर के लगभग 140 देशों ने मृत्यु दंड को या तो सामान्य व्यवहार में या कानून द्वारा समाप्त कर दिया है।भारत में इसका कुछ अंश बाकी है जो अभी भी चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, पाकिस्तान आदि के साथ मृत्यु दण्ड को बरकरार रखता है।2017 में, संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने उत्कृष्ट रुप से कहा कि “21 वीं शताब्दी में मृत्युदंड का कोई स्थान नहीं है”, उन देशों से आग्रह है जहां अभी भी मृत्यु दण्ड का प्रवधान है वहां इसे तुरंत ही समाप्त किया जाना चाहिए। हालांकि, भारत में इस मुद्दे को लेकर तर्क में मतभेद हैं।
मृत्युदंड का इतिहास
- मृत्युदंड का प्रावधान मानव समाज में आदिम काल से लेकर आज तक उपस्थित है, किंतु इसके पीछे के कारणों और इसके निष्पादन के तरीकों में समय के साथ निरंतर बदलाव आता गया।
- मृत्युदंड का पहला उल्लेख ईसा पूर्व अठारहवीं सदी के हम्मूराबी की विधान संहिता में मिलता है जहाँ 25 प्रकार के अपराधों के लिये मृत्युदंड का प्रावधान था। ईसा पूर्व चौदहवीं सदी की हिट्टाइट संहिता में भी इसका ज़िक्र है।
- सातवीं शताब्दी ई.पू. में एथेंस के ड्रेकोनियन कोड में सभी अपराधों के लिये मृत्युदंड की ही व्यवस्था थी। पाँचवीं सदी के रोमन कानून में भी मृत्युदंड का विधान था।
- प्राचीन भारत में भी मृत्युदंड का प्रावधान उपस्थित था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र का एक पूरा अध्याय उन सभी अपराधों की सूची को समर्पित है जिनके लिये प्राणदंड या मृत्युदंड दिया जाना नियत था। मौर्य सम्राट अशोक ने पशुवध को तो तिरस्कृत किया, परंतु मृत्युदंड पर रोक नहीं लगाई। विदेशी यात्रियों के संस्मरणों से भी प्राचीन भारत में मृत्युदंड की उपस्थिति का पता चलता है।
- आधुनिक विश्व की बात करें तो एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार, अब तक 101 देशों ने मृत्युदंड की व्यवस्था पर प्रतिबंध लगा दिया है।
- साथ ही 33 देश ऐसे भी हैं जहाँ पिछले दस वर्षों से एक भी मृत्युदंड नहीं दिया गया है। लेकिन आज भी कुछ देश ऐसे हैं जिनमें मृत्युदंड दिया जाता है। इनमें मुख्यतः चीन, पाकिस्तान, भारत, अमेरिका और इंडोनेशिया शामिल हैं।
मृत्युदंड के पक्ष में तर्क
- भारत में मृत्युदंड जैसी कठोर सजा का बना रहना आवश्यक समझा जाता है। दक्षिण एशिया में भारत के पड़ोसी देश भारत को अस्थिर करने के लगातार प्रयास करते रहते हैं। पाकिस्तान की आतंकवाद समर्थन की नीति भारत की आंतरिक व बाह्य दोनों सुरक्षा को खतरे में डालती है। इसीलिए विधि आयोग ने भी भारत में मृत्युदंड बने रहने का समर्थन किया है। उल्लेखनीय है कि मृत्युदंड की अकसर माँग उन देशों द्वारा उठाई जाती है, जिनके यहाँ आर्थिक समृद्धता अच्छी व आंतरिक व बाह्य सुरक्षा की चुनौतियाँ लगभग नगण्य होती हैं।
- किसी भी दण्ड के प्रभाव को इस आधार पर नहीं जाँचा जाना चाहिए, कि इसका प्रभाव अपराधियों पर कैसा है, बल्कि इसे जाँचने व परखने का आधार सम्पूर्ण समाज होना चाहिए अर्थात् यदि कोई दण्ड समाज की रक्षा करने व स्थिरता कायम करने में सक्षम है तो उसका व्यवस्था में बना रहना उचित है। जघन्य अपराध करने वाले व्यक्ति को सुधार के नाम पर कठोर सजा (यथा- मृत्युदंड इत्यादि) से वंचित किया गया तो अपराध के प्रति समाज में भय कम व्याप्त होगा और अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। जीवन की पवित्रता को तभी संरक्षित किया जा सकता है जब इसे अपवित्र करने वालों को आनुपातिक रूप से दण्डित किया जाये।
- मृत्युदंड का प्रावधान प्रतिशोधात्मक न्याय पर आधारित नहीं है बल्कि यह समाज से घृणा दूर करने और समरसता व्याप्त करने का उपबन्ध करता है। संविधान में भी मौलिक अधिकारों (यथा-जीवन का अधिकार इत्यादि) को युक्ति-युक्त निर्बन्धन के साथ उपलब्ध कराया गया है। समाज के हितों को यदि लघुकालिक एवं दीर्घकालिक रूप से सुरक्षित करना है तो बड़े-बड़े अपराधियों(शबनम और सलीम आदि) या फिर कई लोगों को एक साथ मौत के घाट उतारने वाले आतंकियों (यथा-अजमल कसाब, याकूब मेनन आदि) को मृत्युदंड जैसी सजा देने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचता है।
- कार्ल मार्क्स व कांट जैसे चिंतकों का भी मानना है कि किसी अपराध के पीछे व्यक्तिगत हित से अधिक सामाजिक हितों को वरीयता प्रदान करनी चाहिए। इसी प्रकार, उपयोगितावादी दर्शन भी कहता है कि ‘अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख’ तभी निर्धारित हो सकता है जब समाज अपराधीकरण से मुक्त हो।
मृत्युदंड के विपक्ष में तर्क
- विभिन्न मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं और अन्य विद्वानों का मानना है कि मृत्युदंड, सजा के उद्देश्य को सही मायने में पूरा नहीं करता है, अतः इसे हटा देना चाहिए। मृत्युदंड के विपक्ष में उनके द्वारा कई तर्क दिये जाते हैं, जिनकी आगे चर्चा की गई है।
- किसी भी सभ्य समाज में सजा/दण्ड का मुख्य उद्देश्य अपराधियों को सुधारने का होता है, इसलिए जब उन्हें मृत्युदंड सुनाया जाता है तो सजा/दण्ड का उपर्युक्त उद्देश्य पूरा नहीं होता है ,और अपराधी के सुधरने के सभी रास्ते बंद हो जाते हैं।
- पृथ्वी पर किसी भी प्राणी को जीवित रहने और यथोचित रूप से जीवन-यापन करने हेतु प्रकृति ने अनन्य अधिकार दिए हैं। जीवन के अधिकार का दर्शन कहता है कि यदि मनुष्य किसी को जीवन दे नहीं सकता है तो उसे जीवन को छीनने का भी अधिकार नहीं है।
- जीवन का अधिकार एक ही रूप में छीना जा सकता है, जब आत्मरक्षा का सवाल हो, लेकिन राज्य द्वारा दिया गया मृत्युदंड आत्मरक्षा न होकर, एक प्रकार की सजा है।
- न्याय का पुनर्विचार का सिद्धान्त कहता है कि न्यायालय या अन्य के द्वारा उपलब्ध कराया गया निर्णय अपने आप में अंतिम नहीं होता है, उसमें हमेशा व्याख्या एवं सुधार की गुंजाइश बनी रहती है।
- कुछ विद्वान मृत्युदंड को प्रतिशोधात्मक न्याय (Retributive Justice) की संज्ञा देते हैं और अपराध पर अंकुश लगाने की इसकी प्रभावशीलता को संदेहात्मक मानते हैं। अभी तक ऐसे कोई भी आँकड़े या तथ्य उपलब्ध नहीं हैं जो यह सिद्ध करते हों कि मृत्युदंड जैसे कठोर सजा के प्रावधानों ने समाज में अपराधीकरण की प्रवृत्ति को कुंद किया हो।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 ‘जीवन के अधिकार’ की गारण्टी देता है। जीवन का अधिकार, अन्य सभी मानवाधिकारों के लिए रीढ़ की हड्डी का कार्य करता है अर्थात् यह सभी अधिकारों को आधार प्रदान करता है। दूसरी ओर दण्ड के सुधारात्मक सिद्धांत के समर्थकों का मानना है कि मृत्युदंड की व्यवस्था ‘जीवन के अधिकार’ को समाप्त करने के साथ-साथ मानवीय गरिमा को भी क्षति पहुँचाता है और किसी अपराधी को सुधरने के अवसर से वंचित कर देता है।
- अभी तक किसी भी अध्ययन से यह सिद्ध नहीं हो पाया है कि मृत्युदंड, आजीवन कारावास से अधिक प्रभावशाली है और यह हत्या, आतंकवाद, यौन हिंसा एवं अन्य जघन्य अपराधों को रोकने में सक्षम रहा है।
- भारत के संदर्भ में देखा गया है कि मृत्युदंड से सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब व पिछड़े लोग हुए हैं। अधिकतर सरकार की ओर से कानूनी सहायता प्राप्त करने वाले कैदियों को मृत्युदंड की सजा मिलती है, जबकि इसके विपरीत धनवान व निजी वकीलों की फौज रखने वाले लोगों को न के बराबर मृत्युदंड मिला है।
- मृत्युदंड को निष्पक्ष या तर्कसंगत रूप से नियंत्रित करना लगभग असम्भव है। विभिन्न न्यायाधीशों ने अपनी विचारधारा के अनुसार ही मृत्युदंड पर निर्णय लिया है। यही कारण है कि प्रति एक लाख हत्या के केसों में सिर्फ 5-2 मामलों पर ही मृत्युदंड की सजा पर मुहर लगाई गई है। विभिन्न राष्ट्रपतियों ने भी अपनी विचारधारा के अनुसार ही दया याचिकाओं पर निर्णय लिया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि मृत्युदंड के संबंध में भारत में कोई स्पष्ट नीति न होकर विभिन्न न्यायाधीश व राष्ट्रपतियों की इच्छा पर निर्भर करती है और ऐसे संवेदनशील मामले में विषयनिष्ठता (Subjectivity) का होना अनुचित है।
मृत्युदंड को समाप्त करने के प्रयास
- वर्ष 1931 में बिहार से निर्वाचित सदस्य बाबू गया प्रसाद सिंह द्वारा भारतीय दंड संहिता के तहत मृत्युदंड को समाप्त करने के लिये केंद्रीय विधानसभा में एक विधेयक पेश करने का प्रयास किया गया था।
- सभा में यह प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया और उसके एक दिन बाद ही 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव को मृत्युदंड दे दिया गया।
- इसके पश्चात् वर्ष 1931 में ही कराची में अपने सत्र में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें मृत्युदंड को समाप्त करने की मांग की गई थी।
- वर्ष 1947 और 1949 के बीच संविधान सभा ने मृत्युदंड से संबंधित कई प्रश्नों पर विचार किया। बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने सभा में मृत्युदंड की समाप्ति का समर्थन किया था। हालाँकि संविधान सभा ने यह निर्णय न्यायपालिका और संसद पर छोड़ दिया था।
मृत्युदंड पर भारतीय परिदृश्य
- हत्या के मामले में आईपीसी की धारा 302 के तहत, न्यायाधीश मौत की सजा और आजीवन कारावास के बीच चयन कर सकते हैं यानि मृत्युदंड का निर्णय न्यायाधीश के विवेक पर छोड़ दिया गया है।
- 1980 में ‘बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य’ के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने मौत की सजा की वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि मृत्युदंड को ‘दुर्लभतम’ (Rarest of Rare) मामलों में ही दिया जाना चाहिए, जिसमें हत्या, राजद्रोह एवं अन्य जघन्य अपराध हो सकते हैं।
- दिसम्बर 2012 में दिल्ली में एक युवती के सामूहिक बलात्कार के बाद सन् 2013 में‘भारतीय दंड संहिता’ में संशोधन किया गया, जिसमें जघन्य रूप से बलात्कार करने वाले बालिग एवं नाबालिग दोनों के लिए फाँसी का प्रावधान किया गया।
- विधि आयोग ने सन् 2015 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत में मृत्युदंड की सजा की नीति उपयुक्त तरीके से क्रियान्वित नहीं हो पायी है। यह कई बार न्यायाधीशों के द्वारा मनमाने एवं गलत तरीके से लागू की गई है।
- वर्तमान में भारत में ‘पॉक्सो (POCSO) कानून, 2012’ और आईपीसी में संशोधन करके 12 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों से बलात्कार करने वालों को मृत्युदंड का प्रावधान किया गया है।
इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के महत्त्वपूर्ण निर्णय
- वर्ष 1980 के बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि मृत्युदंड की सज़ा मात्र अन्यान्यतम (The Rarest of The Rare) मामलों में ही दी जा सकती है।
- वर्ष 1983 के मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्युदंड के लिये निम्नलिखित मापदंडों को निर्धारित किया:
- अत्यंत क्रूर, कठोर और भयानक तरीके से हत्या के मामले में;
- यदि हत्या का उद्देश्य धन प्राप्त करना है;
- अनुसूचित जाति या अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्या करने पर;
- किसी निर्दोष बच्चे, असहाय महिला या गणमान्य व्यक्ति की हत्या करने पर।
- वर्ष 1989 के केहर सिंह बनाम भारत संघ वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि कार्यपालिका की क्षमा शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
निष्कर्ष
आपराधिक कानून में, ब्लैकस्टोन्स फार्मूलेशन नामक एक प्रसिद्ध सिद्धांत है। यह कहता है कि “एक निर्दोष को सजा देने से बेहतर दस दोषी व्यक्तियों को मुक्त करना है”। हालांकि एक बात निश्चित है कि उपरोक्त उद्धरण का विरोध करने के लिए कई कारण हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जाता है कि मृत्यु की सजा अपरिवर्तनीय हैऔर निर्दोष होने की संभावना पर दोषी करार देना इसेएक बहुत ही खतरनाक निर्णय बना देता है।
अपराधको रोकने के लिए मृत्युदंड को एक प्रभावी उपकरण माना जाए या नहीं लेकिन इसे स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह शायद अधिक दोषों की उचित निष्पक्षता है। यह सुनिश्चित करना आवश्यक हो गया है कि न्याय की तलाश में, हम लापरवाही से किसी निर्दोष जीवन को दण्डित न करें।
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